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मैं सिन्धु घाटी सभ्यता का वंशज हूँ आप सभी आदिवासियों को लोकतंत्र नहीं सिखा सकते बल्कि आपको ही उनसे लोकतंत्र सीखना है। आदिवासी इस दुनिया में सबसे बड़े लोकतांत्रिक लोग हैं।' यह कथन है आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा का जिन्होंने आदिवासी अस्मिता एवं उसके अधिकारों के लिए न केवल अंग्रेजों बल्कि गैरआदिवासियों के खिलाफ भी आवाज उठायी।
जयपाल सिंह मुंडा जन्म
झारखंड के जंगलों से लेकर लोकसभा तक आदिवासियों के लिए संघर्षशील जयपाल सिंह मुंडा जो मरांग गोमके के नाम से विख्यात थे, उनका का जन्म झारखंड के टकरा पाहन टोली में 3 जनवरी 1903 ई. को एक आदिवासी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम अमरू पाहन तथा माता का नाम राधामुनि था। माता पिता के द्वारा उन्हें प्रमोद पाहन नाम दिया गया। वह अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे। उनकी बड़ी बहन का नाम कीस्टोमनी तथा छोटे भाई का नाम जयश्री और रघुनाथ था।
शिक्षा
3 जनवरी, 1911 को उनके पिता ने उनका नामांकन संत पॉल स्कूल में करवाया। वहीं पर उनका नाम जयपाल सिंह हो गया। पढ़ने में मेधावी होने के कारण उन्हें शिक्षकों एवं प्रिंसिपल का प्यार एवं सहयोग मिलता रहता था। उस स्कूल के प्रिंसिपल केनन कासग्रेव की उन पर विशेष कृपा थी। वह उन्हें इंग्लैंड ले जाकर शिक्षित करना चाहते थे साथ ही उनकी मंशा उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर पादरी बनाने की थी।उसी समय एक घटना घटी जिसने बालक जयपाल के जीवन को परिवर्तित कर दिया। हुआ यह था कि विशप वेस्टकोट ने कैनन से कहा कि बूढ़े होने के कारण वह संत पॉल स्कूल की जिम्मेदारी उठाने में असमर्थ है, अतः उन्हें यह पद छोड़ देना चाहिए। कैनन इस पद को छोड़ना नहीं चाहते थे पर विशप की आज्ञा से उन्हें यह पद छोड़ना पड़ा। कैनन ने इंग्लैंड जाने का निश्चय लिया पर साथ-साथ यह भी घोषणा कर दी कि वह अपने साथ अपने छात्र जयपाल को भी इंग्लैंड ले जाएंगे।
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जयपाल सिंह मुंडा कि, जहाज में बैठे हुई फोटो |
जयपाल प्रिंसीपल कैनन के साथ 1918 ईस्वी में इंग्लैंड पहुँच गये। इस यात्रा में जयपाल पहली बार ट्रेन और जहाज में बैठे थे। यात्रा के दौरान उनकी मुलाकात कई आई. सी.एस. अधिकारियों से हुई। इंग्लैंड पहुँचने के बाद उनका नामांकन सेंट ऑगस्टिन कॉलेज डारलिंगटन में हुआ। इस समय तक जयपाल कैनन द्वारा ईसाई धर्म में बपतिस्मा ले चुके थे। दो सत्र की पढ़ाई यहाँ करने के बाद वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के सेंट जॉन्स कॉलेज में गये। वहाँ उन्हें 40 पौंड की हर्टफोर्डशायर छात्रवृत्ति भी मिली थी। यहाँ पर उन्होंने काफी वक्त बिताया, यहीं पर उनकी रुचि हॉकी के प्रति हुई और जल्द ही उनकी गिनती हॉकी के अच्छे खिलाड़ियों ाड़ियों में होने लगी। जयपाल ने ऑक्सफोर्ड की हॉकी टीम के लिए कई मैच खेले।
जयपाल सिंह मुंडा हॉकी मैच खेल कप्तान थे.1928 ईस्वी में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में ओलंपिक की शुरुआत हुई। उस समय के दो ब्रिटिश अधिकारी कोलेनल बरूस टूर्नबुल तथा मेजर रिकेट्स जो भारतीय सेना में थे, उन्होंने जयपाल सिंह से हॉकी मैच खेलने तथा भारतीय टीम की कप्तानी करने के लिये कहा।
जयपाल सिंह मुंडा हॉकी मैच खेल कप्तान थे.1928 ईस्वी में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में ओलंपिक की शुरुआत हुई। उस समय के दो ब्रिटिश अधिकारी कोलेनल बरूस टूर्नबुल तथा मेजर रिकेट्स जो भारतीय सेना में थे, उन्होंने जयपाल सिंह से हॉकी मैच खेलने तथा भारतीय टीम की कप्तानी करने के लिये कहा।
इसी समय जयपाल सिंह ने साक्षात्कार में अच्छे नम्बरों के साथ आई. सी. एस. की परीक्षा पास की थी एवं उनकी आई. सी. एस. की ट्रेनिंग भी शुरू हो गई थी। वे चाहते थे कि उन्हें आई. सी. एस. की ट्रेनिंग से छुट्टी मिल जाये ताकि हॉकी खेलने के बाद वे वापस नौकरी में आ सकें। इस हेतु उन्होंने लंदन स्थित इंडिया ऑफिस से संपर्क कर एम्स्टर्डम जाने की छुट्टी मांगी पर उन्हें छुट्टी नहीं मिली। अब उन्हें हॉकी या आई. सी. एस. दोनों में से किसी एक को चुनना था और उन्होंने हॉकी को चुना।
जयपाल सिंह ने हॉकी टीम के गठन पर जोर दिया एवं भारत के दिग्गज खिलाड़ी ध्यानचंद, शौकत अली से संपर्क किया और एक मजबूत हॉकी टीम बनाई। इस टीम ने ओलंपिक में सारे मैच जीते एवं विपक्षी टीम को एक भी गोल नहीं करने दिया। फाइनल मैच 26 मई 1928 को नीदरलैंड और भारत के बीच हुआ था जिसमे ध्यांचनद ने भारत की और से तीन गोल किये थे। भारत ने 3-0 से यह मैच जीता था।
जयपाल सिंह ने हॉकी टीम के गठन पर जोर दिया एवं भारत के दिग्गज खिलाड़ी ध्यानचंद, शौकत अली से संपर्क किया और एक मजबूत हॉकी टीम बनाई। इस टीम ने ओलंपिक में सारे मैच जीते एवं विपक्षी टीम को एक भी गोल नहीं करने दिया। फाइनल मैच 26 मई 1928 को नीदरलैंड और भारत के बीच हुआ था जिसमे ध्यांचनद ने भारत की और से तीन गोल किये थे। भारत ने 3-0 से यह मैच जीता था।
हॉकी टीम के पहले कप्तान थे जयपाल सिंह
जयपाल सिंह की कप्तानी में ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने पर पूरी टीम का बंबई में भव्य स्वागत हुआ। कुछ दिनों के बाद वे वापस ऑक्सफोर्ड लौट गये, इस आशा के साथ कि हॉकी में इतना अच्छा प्रदर्शन करने के कारण ब्रिटिश सरकार उनकी छुट्टी को मंजूरी दे देगी एवं आई. सी. एस. की नौकरी में वे पुनः जा सकेंगे। पर ब्रिटिश सरकार ने उनकी छुट्टी मंजूर नहीं की एवं उन्हें आई. सी. एस. की नौकरी से इस्तीफा देना पड़ा। पर जल्द ही बर्मा शैल ऑयल स्टोरेज एन्ड डिस्ट्रिब्यूटिंग कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड में उन्हें नौकरी मिल गयी।शिक्षक के रूप में कार्य किया
कुछ महीने इंग्लैंड ऑफिस में काम करने के बाद उनका तबादला कलकत्ता ब्रांच में हो गया। इस कंपनी में नौकरी करते हुए वे छुटियों में दार्जिलिंग गये तो वहाँ पर उनकी मुलाकात कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष डब्ल्यू सी बनर्जी की नातिन तारा विन्फ्रेड मजूमदार से हुई। जिससे उन्होंने 15 जनवरी 1932 में दार्जिलिंग के संत पॉल चर्च में शादी की। कुछ समय बाद उन्होंने बर्मा शेल की नौकरी त्याग दी एवं प्रिंस ऑफ वेल्स कॉलेज, एचीमोटो, गोल्ड वेस्ट कॉलोनी में शिक्षक के रूप में कार्य किया।
यह कॉलेज लंदन विश्वविद्यालय की डिग्री प्रदान करता था। पर यह नौकरी भी उन्हें ज्यादा समय तक रास नहीं आई। इस नौकरी से त्यागपत्र देकर उन्होंने उस समय के होम सेक्रेटरी मॉरिस हैलेट को एक पत्र लिखा, जिन्हें वे बचपन से जानते थे। होम सेक्रेटरी की सिफारिश पर कुछ दिनों बाद ही उन्हें रायपुर के राजकुमार कॉलेज में प्रिंसीपल की नौकरी मिल गयी। इस कॉलेज के सभी विद्यार्थी किसी न किसी राज्य के राजकुमार थे एवं प्रत्येक राजकुमार के अपने-अपने परिचारक, रसोई तथा शिक्षक थे।
पर कुछ समय बाद जयपाल को यह नौकरी भी छोड़नी पड़ी क्योंकि इन विद्यार्थियों के राजा पिता इस कॉलेज में अंग्रेज प्रिंसिपल चाहते थे। उसके बाद जयपाल सिंह को और भी कई प्रस्ताव नौकरी के लिये आये पर उन्होंने नौकरी का विचार त्याग दिया और अपने गांव टकरा लौट आएं। उस समय तक उनके पिता का देहांत हो चुका था पर उनकी माता जीवित थी जो उन्हें देखकर काफी खुश हुई।
1938 के आखिरी महीने में उन्होंने पटना और रांची का दौरा किया इस दौरे के दौरान आदिवासियों की खराब हालत को देखते हुए उन्होंने राजनीति में आने का फैसला लिया। इस संदर्भ में जब उन्होंने अपनी माँ से पूछा कि उन्हें राजनीति में आना चाहिए या नहीं तो उन्होंने जवाब दिया 'बेटा जो तुम्हें अच्छा लगता है वह करो।
1939 को आदिवासी सभा का अध्यक्ष पद स्वीकार किया
जल्द ही जयपाल सिंह कई आदिवासी नेताओं जैसे साहिब बदीराम उरांव, पॉलदयाल, इग्निस बेल, थेबले उरांव, थियोडोर सुसि, जूलियस टिगा आदि से मिले। इन सभी ने जयपाल सिंह से आदिवासी सभा का अध्यक्ष बनने का आग्रह किया। इस बात पर अपनी पत्नी और सास की राय जानने के लिए वे दार्जीलिंग गये। उनकी सास जो कांग्रेस अध्यक्ष डब्ल्यू, सी. बनर्जी की बेटी थी, वह कांग्रेस के विरोध में आदिवासी सभा के पक्ष में नहीं थी। पर उनकी पत्नी ने उनका साथ देते हुए कहा कि उन्हें जो पसंद है, वह करें। पत्नी का समर्थन पाकर जयपाल रांची लौट आयें एवं 20 जनवरी, 1939 को आदिवासी सभा का अध्यक्ष पद स्वीकार कर लिया।आदिवासी सकम' नाम का साप्ताहिक पत्रिका
मरांग गोमके यानि ग्रेट लीडर के नाम से प्रसिद्ध जयपाल सिंह मुंडा ने अखिल भारतीय आदिवासी सभा का गठन कर आदिवासियों के शोषण के विरूद्ध राजनीतिक और सामाजिक लड़ाई लड़ने का निश्चय किया। वे 'आदिवासी सकम' नाम से एक साप्ताहिक पत्रिका निकालते थे, जिसमे झारखंड के स्वतंत्र अस्तित्व से संबंधित आलेख छपते थे। 1 सितंबर, 1938 को 'आदिवासी सकम' में छपा था कि 'आदिवासी ही छोटानागपुर के मूल निवासी हैं, वे जो बाहर से आये हैं, भले ही यहाँ पांच सौ सालों से रह रहे हो, वे भी यहाँ के मूल निवासी नहीं हैं, वे परदेसी हैं। 25 अक्टूबर, 1938 को आदिवासी सकम में छपा कि 'उरांव, मुंडा, खरिया, हो, संथाल, आदिवासी हैं जबकि हिन्दू, मुसलमान, कायस्थ, एवं बनिया परदेसी है।"जयपाल सिंह ने 4 दिसंबर 1939 को जमशेदपुर में करीब 5000 लोगों की सभा में, जिसमे सुभाषचंद्र बोस भी उपस्थित थे, कांग्रेस की आलोचना करते हुए कहा कि 'कांग्रेस छोटानागपुर को आदिवासी क्षेत्र नहीं मानती है। हम सुभाषचंद्र बोस से यह मांग करते है कि छोटानागपुर एवं संथाल परगना को आदिवासी क्षेत्र घोषित किया जाये। 12 रांची एवं सिंहभूम में हुए डिस्ट्रिक्ट चुनाव में आदिवासी सभा ने अच्छी सफलता प्राप्त की। रांची में आदिवासी सभा को 25 में से 16 सीटे तथा सिंहभूम में 24 में से 22 सीटे मिली।
कांग्रेस ने इस हार का कारण जानने के लिए राजेन्द्र प्रसाद को नियुक्त किया एवं राजेन्द्र प्रसाद ने इस संबंध में जब जयपाल सिंह से बात की तो उन्होंने बताया कि कांग्रेस की हार का यह कारण है कि कांग्रेस ने इस क्षेत्र की जरूरतों को नजरअंदाज किया है। साथ ही उन्होंने राजेन्द्र प्रसाद को यह सुझाव दिया और मांग की कि अगर कांग्रेस इस क्षेत्र में जीतना चाहती है तो उसे इस क्षेत्र के नेताओं को कैबिनेट में, युवा पीढ़ी को प्रशासन में तथा अन्य सरकारी सेवाओ में स्थान देना होगा। साथ ही इस क्षेत्र में एक डिग्री कॉलेज की स्थापना करनी होगी।"
एवं वहाँ जंगली जानवर रहते हैं। अतः उनकी पत्नी ने रांची में जयपाल सिंह के साथ रहने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ जयपाल सिंह के लिए दार्जिलिंग जाकर रहना संभव नहीं था क्योकि अपने आंदोलन में वे काफी आगे बढ़ चुके थे, जहाँ से लौटना उनके लिए संभव नहीं था एवं न ही वे लौटना चाहते थे। इस तरह उनकी शादी कमजोर होते हुए 1952 में कानूनी रुप से समाप्त हो गई।
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध
1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जयपाल सिंह ने सात लाख आदिवासियों को सेना में भर्ती कराया था। आदिवासी आंदोलन में स्वयं को समर्पित करनेवाले जयपाल सिंह के पास अपने व्यक्तिगत रिश्तों के लिए समय का अभाव होने लगा। उनकी लोकप्रियता झारखंड के साथ-साथ बंगाल, उड़ीसा, एवं मध्य प्रदेश में भी बढ़ने लगी थी। वह सदैव अपने समर्थकों के साथ कभी यहाँ तो कभी वहाँ सभाएं करते एवं उनके भाषण को आदिवासी बड़े चाव से सुनते। उधर दार्जिलिंग में उनकी पत्नी जो रांची नहीं आना चाहती थी क्योंकि उन्होंने झारखंड के बारे में यह सुन रखा था कि वह जंगली इलाका है.एवं वहाँ जंगली जानवर रहते हैं। अतः उनकी पत्नी ने रांची में जयपाल सिंह के साथ रहने से इनकार कर दिया। दूसरी तरफ जयपाल सिंह के लिए दार्जिलिंग जाकर रहना संभव नहीं था क्योकि अपने आंदोलन में वे काफी आगे बढ़ चुके थे, जहाँ से लौटना उनके लिए संभव नहीं था एवं न ही वे लौटना चाहते थे। इस तरह उनकी शादी कमजोर होते हुए 1952 में कानूनी रुप से समाप्त हो गई।
7 मई, 1952 को उन्होंने जहाँ आरा जयरत्नम से दूसरा विवाह किया। इधर झारखंड आंदोलन जोर पकड रहा था एवं अलग झारखंड का सपना हर आदिवासी देख रहा था। लेकिन कांग्रेस विशेष रूप से बिहार कांग्रेस अलग झारखंड के पक्ष में नहीं थी। राजेन्द्र प्रसाद ने इस संबंध में तीन नेताओं को आदिवासी नेताओं से बात करने के लिए भेजा, जिससे वे अलग झारखंड की मांग नहीं करें पर इसका कोई नतीजा नहीं निकला।
1946 में विधानमंडल के चुनाव हुए जिसमें जयपाल सिंह ने आदिवासी सभा के बैनर तले सभी जगह से अपने उम्मीदवार खड़े किए। उन्होंने स्वयं खूंटी ग्रामीण से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। कांग्रेस ने जयपाल सिंह के विरोध में प्रफुल्लचंद्र मित्रा को खड़ा किया। इस चुनाव के दौरान कांग्रेस एवं आदिवासी सभा के बीच हिंसक झड़प हुई। आदिवासी सभा ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया तो कांग्रेस ने आदिवासी सभा और जयपाल सिंह को जिम्मेदार ठहराया। इस संदर्भ में जयपाल सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि राजेन्द्र बाबू के लोगों ने तपकारा में सात आदिवासियों की हत्या कर दी जब वे बाजार से घर जा रहे थे क्योंकि कुछ ही दिनों में वोटिंग होने वाली थी।
1946 में विधानमंडल के चुनाव हुए जिसमें जयपाल सिंह ने आदिवासी सभा के बैनर तले सभी जगह से अपने उम्मीदवार खड़े किए। उन्होंने स्वयं खूंटी ग्रामीण से चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। कांग्रेस ने जयपाल सिंह के विरोध में प्रफुल्लचंद्र मित्रा को खड़ा किया। इस चुनाव के दौरान कांग्रेस एवं आदिवासी सभा के बीच हिंसक झड़प हुई। आदिवासी सभा ने इसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया तो कांग्रेस ने आदिवासी सभा और जयपाल सिंह को जिम्मेदार ठहराया। इस संदर्भ में जयपाल सिंह ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि राजेन्द्र बाबू के लोगों ने तपकारा में सात आदिवासियों की हत्या कर दी जब वे बाजार से घर जा रहे थे क्योंकि कुछ ही दिनों में वोटिंग होने वाली थी।
मैं चुनाव जीत सकता था लेकिन इतनी हिंसा होने के कारण मैं लड़ाई से पीछे हट गया।" इसमे जयपाल सिंह कि हार हुई थी। दूसरी ओर उस समय के प्रमुख पत्र 'सर्चलाइट' और 'योगी' अखबारों ने इस हिंसा के लिए आदिवासी सभा को उत्तरदायी ठहराया। सर्चलाइट ने 20 फरवरी, 1946 को एवं योगी ने 22 फरवरी, 1946 को यह छापा कि 'कांग्रेस नेता जयपाल सिंह मुंडा कांग्रेस की सभाओं में बाधा डालते हैं'। कांग्रेस द्वारा जब इसकी शिकायत की गई तो सरकार ने भी इस दिशा में उदासीनता दिखाई। सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से जयपाल सिंह मुंडा का समर्थन कर रही थी।
सरकार ने यूसी 30. एक्ट पास किया जिसके अनुसार कोई भी सभा रांची एवं डोरंडा में नहीं की जायेगी। अगर किसी को सभा करनी है तो इसके लिए उन्हें पांच दिन पहले सरकार से स्वीकृति लेनी पड़ेगी। यह सब कांग्रेस को रांची एवं अन्य स्थानों पर चुनाव प्रचार रोकने के लिए किया गया था। सरकारी संचिकाओं के अनुसार सरकार ने यू/सी144 के तहत नंदकिशोर भगत, अतुलचंद्र मित्र, देवेंद्र नाथ साहु, अर्जुन लाहिरी एवं बंसी भगत को कुमकुम बाजार से गिरफ्तार किया और यह आरोप लगाया कि वे फरवरी के अंत तक कोई सभा नहीं कर सकते।
इससे कांग्रेस समर्थकों में यह खबर प्रचारित हुई कि चूंकि मतदान का समय नजदीक है अतः सरकार शांति बनाये रखने का बहाना करके कांग्रेसी नेता को गिरफ्तार कर रही है एवं वह ऐसा कांग्रेस को कमजोर एवं जयपाल सिंह को शक्तिशाली बनाने के लिए कर रही है।
क्योंकि जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के लिए अंग्रेजों एवं गैर आदिवासियों दोनों से समान रूप से संघर्ष कर रहे थे। यह कहावत है कि दुश्मन के दुश्मन को दोस्त माना जा सकता है, अतः ब्रिटिश सरकार जयपाल सिंह के साथ नरम रवैया अपना रही थी। आदिवासियों ने इस चुनाव में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ मार-पीट भी की थी। इस संदर्भ में राजेन्द्र प्रसाद ने बिहार के मुख्य सचिव को एक पत्र भी लिखा था। बोनिफेस लकरा जो चुनाव के समय कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर रहे थे, उन्हें बुरी तरह से पीटा गया। इसका कारण यह था कि जयपाल सिंह और आदिवासी सभा यह नहीं चाहती थी कि वहाँ पर कांग्रेस की सरकार बने। वे अंग्रेजों की तरह गैर आदिवासियों की सरकार अपने क्षेत्र में नहीं चाहते थे।
जयपाल सिंह संविधान सभा के सदस्य थे जुलाई, 1946 में जयपाल सिंह संविधान सभा के लिए चुने गये एवं संविधान सभा मे आदिवासियों की सशक्त आवाज बन गये। उन्होंने संविधान सभा में अनुसूचित जनजाति की जगह आदिवासियों को मूल आदिवासी करने की बात कही तथा संविधान से आदिवासी शब्द हटाने का विरोध किया। अम्बेडकर ने आदिवासी की जगह अनुसूचित जनजाति का प्रयोग किया था।
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मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा जीवनी परिचय जाने | Biography of Marang Gomke Jaipal Singh Munda |
संसद में संविधान के मसौदे में हुई बहस के दौरान जयपाल सिंह मुंडा ने शराबबंदी का खुलकर विरोध करते हुए कहा कि शराब आदिवासी त्यौहारों, रीतिरिवाजों, एवं दैनिक जीवन का एक हिस्सा बन गया है। शराबबंदी के विरोध में उन्होंने एक दलील प्रस्तुत करते हुये कहा कि पश्चिमी बंगाल में तो धान की बुवाई करना असंभव हो जाएगा अगर संथालों को चावल से बनी शराब मिलना बंद जाये।
आजादी के बाद जब राज्यों के पुनर्गठन का कार्य हो रहा था। खरसावां, चक्रधरपुर, सरायकेला आदिवासी बहुल क्षेत्र थे पर वहाँ के शासक जो उड़िया भाषी थे वे इन आदिवासी क्षेत्रों को उड़ीसा में मिलाने के पक्ष में थे। पर झारखंड के आदिवासियों के लिए यह अपनी अस्मिता अपनी पहचान कोबनाये रखने का प्रश्न था।
आजादी के बाद जब राज्यों के पुनर्गठन का कार्य हो रहा था। खरसावां, चक्रधरपुर, सरायकेला आदिवासी बहुल क्षेत्र थे पर वहाँ के शासक जो उड़िया भाषी थे वे इन आदिवासी क्षेत्रों को उड़ीसा में मिलाने के पक्ष में थे। पर झारखंड के आदिवासियों के लिए यह अपनी अस्मिता अपनी पहचान कोबनाये रखने का प्रश्न था।
खरसावां में एक विशाल सभा
अतः जनवरी, 1948 को आदिवासी सभा ने खरसावां में एक विशाल सभा का आयोजन किया गया जिसमे हज़ारों की संख्या में आदिवासी अपनी पीठ पर अनाज एवं बर्तन बांधे हुए कई मील पैदल चलकर खरसावां पहुँचे। जब सभा उड़ीसा सरकार को अपनी मांग से संबंधित ज्ञापन देकर लौट रही थी तो उड़ीसा की पुलिस द्वारा उन पर गोलियां चलाई गई, जिसमे एक हज़ार से अधिक लोग मारे गए। राममनोहर लोहिया ने इस हत्याकांड की तुलना जलियांवाला बाग से करते हुए कहा कि 'दोनों में फर्क सिर्फ इतना ही है कि 1919 का जलियांवाला बाग में गोली चलाने वाली सरकार विदेशी थी पर 1948 में गोली चलाने वाली सरकार भारत की थी"
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जयपाल सिंह मुंडा चुनाव मुर्गा चिन्ह पर जीते
1 जनवरी, 1950 को जमशेदपुर में आयोजित आदिवासी महासभा में उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाते हुए झारखंड पार्टी की घोषणा की। 1952 के प्रांतीय एवं केंद्रीय चुनावों में झारखंड पार्टी के 33 विधायक एवं 3 सांसद पार्टी के चुनाव चिन्ह मुर्गा पर जीते। स्वयं जयपाल सिंह रांची पश्चिम (खूंटी) संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 1957 के चुनाव में झारखंड के 31 विधायक एवं 6 सांसद जीते। जयपाल सिंह दूसरी बार खूंटी से जीते। 1962 के चुनाव में झारखंड पार्टी के 20 विधायक एवं 3 सांसद जीते। जयपाल सिंह तीसरी बार भी खूंटी से विजयी हुए।![]() |
जयपाल सिंह चुनाव चिन्ह मुर्गा पर जीते तब कि फोटो |
जयपाल सिंह मुंडा पूर्व पत्नी देहांत
19 मार्च 1970 को वे अपनी पूर्व पत्नी तारा से मिले। 20 मार्च 1970 को मस्तिष्क में रक्तस्राव होने के कारण उनका देहांत हो गया एवं उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार उनकी माँ की कब्र के बगल में दफनाया गया। 15 नवंबर, 2000 को अलग झारखंड राज्य बना। भले ही अलग झारखंड राज्य बनने का सपना उनकी मृत्यु के बाद पूरा हुआ हो पर उन्होंने झारखंड के स्वतंत्र अस्तित्व के लिए जो प्रयास किये वे सराहनीय हैं।Biography of Marang Gomke Jaipal Singh Munda / मरांग गोमके जयपाल सिंह मुंडा जीवन परिचय - खास जानकारी
- • 1903, 3 जनवरी, जन्म, टकरा, खूँटी, झारखण्ड
- • 1908 संत पॉल प्राइमरी स्कूल, टकरा में दाखिला लिया
- • 1911 संत पॉल स्कूल, रांची में दाखिला लिया।
- • 1918 प्रिंसिपल केनोन कॉसग्रेस के साथ इंग्लैंड खाना।
- • 1919 संत अगस्तीन कॉलेज, केन्टराबरी, इंग्लैंड में दाखिला ।
- 1923 से 1928 तक हॉकी, फुटबॉल, क्रिकेट, रग्बी, घुड़सवारी के नियमित खिलाड़ी रहे। हॉकी में कॉलेज, यूनिवर्सिटी और इंग्लैंड के प्रोफेशनल टीमों की कप्तानी की।
- • 1924 • 20 अक्टूबर को डिबेटिंग सोसायटी, संत जॉन कॉलेज, ऑक्सफोर्ड के सचिव, फिर अध्यक्ष चुने गये।
- • 1925 ऑक्सफोर्ड हॉकी ब्लू होने वाले पहले एशियाई बने।
- • 1926 इंडियन स्टूडेंट हॉकी फेडरेशन, इंग्लैंड की स्थापना की।
- • 1927 आईसीएस के लिये चयनित हुए। प्रशिक्षण शुरू ।
- • 1928 आईसीएस का देश और खेल के लिए त्याग किया | भारतीय ओलंपिक हॉकी टीम के कप्तान बने, स्वर्ण पदक जीता
- • 1929 बर्मा शेल कंपनी, कलकत्ता के मर्कन्टाइल असिस्टेंट बने । मोहन बागान, कोलकाता के हॉकी टीम की स्थापना की। बंगाल हॉकी एसोसिएशन के सेक्रेटरी बने । इंडियन स्पोर्ट्स काउंसिल के सदस्य बने । 4 नवंबर को एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल के सदस्य चुने गए।
- • 1932 • 15 जनवरी 1932 को दार्जिलिंग में तारा मजुमदार (वी. सी. बनर्जी की दोहिती) से विवाह
- • 1934 • अचिमोता कॉलेज, गोल्ड कोस्ट, घाना (अफ्रीका) में प्रिंसिसपल रहे ।
- • 1937 राजकुमार कॉलेज, रायपुर में प्रिंसिपल हुए । 'आदिवासी सकम' साप्ताहिक पत्र की शुरुआत की ।
- • 1942 सेकेन्ड्री बोर्ड ऑफ एजुकेशन के सदस्य चुने गए